Lekhika Ranchi

Add To collaction

प्रेमा--मुंशी प्रेमचंद




दो-ढ़ाई घण्टे तक उस मकान में स्त्रियों का ठट्टा लगा रहा। मगर शाम होते-होते सब अपने घरों को सिधारी। त्योहार का दिन था। ज्यादा कैसे ठहरती। प्रेमा कुछ देर से मूर्छा पर मूर्छा आने लगी थी। लोग उसे पालकी पर उठाकर वहाँ से ले गये और दिया में बत्ती पड़ते-पड़ते उस घर में सिवाय पूर्णा और बिल्ली के और कोई न था। हाय यही वक्त था कि पंडित जी दफ्तर से आया करते। पूर्णा उस वक्त द्वारे पर खड़ी उनकी राह देखा करती और ज्योंही वह ड्योढ़ी में कदम रखते वह लपक कर उनके हाथों से छतरी ले लेती और उनके हाथ-मुँह धोने और जलपान की सामग्री इकट्टी करती। जब तक वह मिष्टान्न इत्यादि खाते वह पान के बीड़े लगा रखती। वह प्रेम रस का भूख, दिन भर का थका-मॉँदा, स्त्री की दन खातिरदारियों से गदगद हो जाता। कहाँ वह प्रीति बढ़ानेवाले व्यवहार और कहॉँ आज का सन्नटा? सारा घर भॉँय-भॉँय कर रहा था। दीवारें काटने को दौड़ती थीं। ऐसा मालूम होता कि इसके बसनेवालो उजड़ गये। बेचारी पूर्णा ऑंगन में बैठी हुई। उसके कलेजे में अब रोने का दम नहीं है और न ऑंखों से ऑंसू बहते हैं। हॉँ, कोई दिल में बैठा खून चूस रहा है। वह शोक से मतवाली हो गयी है। नहीं मालूम इस वक्त वह क्या सोच रही है। शायद अपने सिधारनेवाले पिया से प्रेम की बातें कर रही है या उससे कर जोड़ के बिनती कर रही है कि मुझे भी अपने पास बुला लो। हमको उस शोकातुरा का हाल लिखते ग्लानि होती है। हाय, वह उस समय पहचानी नहीं जाती। उसका चेहरा पीला पड़ गया है। होठों पर पपड़ी छायी हुई हैं, ऑंखें सूरज आयी हैं, सिर के बाल खुलकर माथे पर बिखर गये है, रेशमी साड़ी फटकार तार-तार हो गयी है, बदन पर गहने का नाम भी नहीं है चूड़िया टूटकर चकनाचूर हो गयी है, लम्बी-लम्बी सॉँसें आ रही हैं। व चिन्ता उदासी और शोक का प्रत्यक्ष स्वरुप मालूम होती है। इस वक्त कोई ऐसा नहीं है जो उसको तसल्ली दे। यह सब कुछ हो गया मगर पूर्णा की आस अभी तक कुछ-कुछ बँधी हुई है। उसके कान दरवाजे की तरफ लगे हुए हुए है कि कहीं कोई उनके जीवित निकल आने की खबर लाता हो। सच है वियोगियों की आस टूट जाने पर भी बँधी रहती है।

शाम होते-होते इस शोकदायक घटना की ख़बर सारे शहर में गूँज उठी। जो सुनता सिर धुनता। बाबू अमृतराय हवा खाकर वापस आ रहे थे कि रासते में पुलिस के आदमियों को एक लाश के साथ जाते देखा। बहुत-से आदमियों की भीड़ लगी हुई थी। पहले तो वह समझे कि कोई खून का मुकदमा होगा। मगर जब दरियाफ्त किया तो सब हाल मालूम हो गया। पण्डित जी की अचानक मृत्यु पर उनको बहुत रोज हुआ। वह बसंतकुमार को भली भॉँति जानते थे। उन्हीं की सिफारिश से पंडित जी दफ्तर में वह जग मिली थी। बाबू साहब लाश के साथ-साथ थाने पर पहुँचे। डाक्टर पहले से ही आया हुआ था। जब उसकी जॉँच के निमित्त लाश खोली गयी तो जितने लोग खड़े थे सबके रोंगेटे खड़े हो गये और कई आदमियों की ऑंखों से ऑंसू निकल आये। लाश फूल गयी थी। मगर मुखड़ा ज्यों का त्यों था और कमल के सुन्दर फूल होंठों के बीच दॉँतों तले दबे हुए थे। हाय, यह वही फूल थे जिन्होंने काल बनकर उसको डसा था। जब लाश की जॉँच हो चुकी तब अमृतराय ने डाक्टर साहब से लाश के जलाने की आज्ञा मॉँगी जो उनको सहज ही में मिल गयी। इसके बाद वह अपने मकान पर आये। कपड़े बदले और बाईसिकिल पर सवार होकर पूर्णा के मकान पर पहुँचे। देखा तो चौतरफासन्नाटा छाया हुआ है। हर तरफ से सियापा बरस रहा है। यही समय पंडित जी के दफ्तर से आने का था। पूर्णा रोज इसी वक्त उनके जूते की आवजे सुनने की आदी हो रही थी। इस वक्त ज्योंही उसने पैरों की चाप सुनी वह बिजली की तरह दरवाजे की तरफ दौड़ी। मगर ज्योंही दरवाजे पर आयी और अपने पति की जगी पर बाबू अमृतराय को खड़े पाया तो ठिठक गयी। शर्म से सर झुका लिया और निराश होकर उलटे पॉँव वापास हुई। मुसीबत के समय पर किसी दु:ख पूछनेवालो की सूरत ऑंखों के लिए बहाना हो जाती है। बाबू अमृतराय एक महीने में दो-तीन बार अवश्य आया करते थे और पंडित जी पर बहुत विश्वास रखते थे। इस वक्त उनके आने से पूर्णा के दिल पर एक ताज़ा सदमा पहुँचा। दिल फिर उमड़ आया और ऐसा फूट-फूट कर रोयी कि बाबू अमृतराय, जो मोम की तरह नर्म दिल रखते थे, बड़ी देर तक चुपचाप खड़े बिसुरा किये। जब ज़रा जी ठिकाने हुआ तो उन्होंने महीर को बुलाकर बहुत कुछ दिलासा दिया और देहलीज़ में खड़े होकर पूर्णा को भी समझया और उसको हर तरहा की मदद देने का वादा करके, चिराग जलते-जलते अपने घर की तरफ रवाना हुए। उसी वक्त प्रेमा अपनी महताबी पर हवा खाने निकली थी। सकी ऑंखें पूर्णा के दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। निदान उसने किसी को बाइसिकिल पर सवार उधार से निकलते दखा। गौर से देखा तो पहिचान गई और चौंककर बोली—'अरे, यह तो अमृतराय है।'

   1
0 Comments